द्वारिका से आया यह दुखद समाचार किसी के लिए भी सहनीय नहीं था।
युधिष्ठिर सहित सारे पांडव और पूरा राजमहल शोक में डूबा हुआ था। द्रोपदी का तो रो-रो कर बुरा हाल था। वह मित्र जिसने हर मुसीबत से निकाला और लाज बचाई, आज उस कृष्ण की मृत्यु का समाचार सबसे असहनीय और ह्रदयविदारक था। कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि ऐसा हो सकता है। महाभारत युध्द के बाद मृत्यु शब्द को भूल ही गए थे सब।
सब लोग अपनी पीड़ा व्यक्त करने में असमर्थ थे। सबको अर्जुन का इंतजार था, जो द्वारका से श्री कृष्ण के बंधु-बांधवों को लेकर आने वाले थे।
सामने से अर्जुन भी आ गये। फटे हुए वस्त्र, आंखों से बहते हुए आंसू और घावों से बहता हुआ रक्त, किसी को भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। यह वही योद्धा है, जिसने भीष्म पितामह, कर्ण और द्रोणाचार्य जैसे महा योद्धाओं को हराया था।
जैसे-तैसे हिम्मत करते हुए युधिष्ठिर ने पूछा "हे अर्जुन क्या हुआ तुम्हें? तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है और श्री कृष्ण के परिजन कहां हैं, जिन्हें तुम लेने गए थे?"
युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर अर्जुन जोर-जोर से विलाप करने लगे। मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे। रोते हुए बोले, "महाराज, हम लोग व्यर्थ ही अपनी सामर्थ्य और शक्ति का अभिमान कर रहे थे। हमारी शक्ति तो श्री कृष्ण ही थे। उनके जाते ही हमारी शक्ति भी चली गई। उनके परिजनों को लाते हुए मुझे भीलो और आदिवासियों ने लूट लिया। जिस गांडीव की एक टंकार से पूरी युद्धभूमि कांप जाती थी, उस गांडीव के तीर निष्क्रीय हो गए। भीष्म पितामह को छलनी करने वाले तीर भीलों के छाल के कवच को भी नहीं भेद पाए। चक्रव्यूह को भेदने वाला अर्जुन, आज भीलों से लुटकर आ गया।"
अर्जुन की बातें सबके हृदय को भेद रही थी। युधिष्ठिर से अब राजमुकुट भी नहीं संभाला जा रहा था। भीम में अपनी गदा उठाने की वी सामर्थ नहीं बची थी। नकुल और सहदेव अपनी सारी ज्योतिष विद्या और विज्ञान भूल गए थे।
युधिष्ठिर ने वानप्रस्थ की तैयारी कर ली, तो चारों भाई और द्रोपदी भी साथ में आ गए। मिथ्या संसार और झूठे अभिमान के साथ एक-एक पल गुजारना मुश्किल हो रहा था। जिस राज्य को पाने के लिए महाभारत का युद्ध लड़ा था, उसको छोड़कर सारे पांडव हिमालय की तरफ प्रस्थान कर गए।
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