भारत के उड़ीसा(Odisha) राज्य में भगवान श्री जगन्नाथ स्वामी के नाम पर बसी जगन्नाथ पुरी कई मायनो में अपने आप में अनुठी और अलग है। यहां पर शिवलिंग के रूप का अशोक स्तम्भ, प्राचीन जैन मंदिर और तांत्रिक पूजा के महत्व की मूर्तियां यह दर्शाते हैं की यह सिर्फ हिंदूओं के लिए ही नही बौद्ध, जैन, तांत्रिक, शैव आदि के लिए भी महत्वपूर्ण है। वास्तव में पुरी इन संस्कृतियों के समन्वय का एक अदभुत उदाहरण है।
हिन्दुओं के चार धामों बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वर में से एक जगन्नाथ धाम अपने आप में अनूठा और अलग है। भगवान श्री जगन्नाथ स्वामी का मंदिर ही विश्व का एकमात्र ऐसा मंदिर है जो भाई-बहिन के प्यारे रिश्ते को समर्पित है। तो आईए जानते हैं कि जगन्नाथ पुरी क्यों है इतनी खास? जगन्नाथ स्वामी से जुड़े रोचक रहस्य और कहानी क्या है? 12 जुलाई 2021 को होने वाली विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा कोरोना महामारी की वजह से कैसे सम्पन्न होगी?
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श्री जगन्नाथ पुरी से जुड़े रहस्यमय तथ्य
भगवान जगन्नाथ स्वामी जी के मंदिर से जुड़े कई ऐसे तथ्य हैं जो आपको हैरान कर देंगे। आईए एक एक करके इनके बारे में जानते हैं -
हवा की विपरीत दिशा में लहराता ध्वज
शीर्ष मंदिर के शिखर का ध्वज हमेशा हवा की उल्टी दिशा में लहराता है। यह एक हैरान कर देने वाली बात है। इसके अलावा समुद्री तटों पर हवाएं दिन में भूमि से समुद्र की ओर तथा रात में समुद्र से तट की तरफ चलती हैं जबकि पुरी में मंदिर के पास इसका विपरीत होता है।
सिंह द्वार पर लहरों की आवाज
मंदिर में एक सिंह द्वार है। जब तक हमारे कदम सिंह द्वार के बाहर रहते हैं, हमें लहरों की जोर जोर से आवाज आती रहती है। लेकिन सिंह द्वार के भीतर एक कदम रखते ही लहरों की आवाज आना पूरी तरह से बंद हो जाती है।
इसी तरह मंदिर के बाहर एक स्वर्ग द्वार भी है, जहां पर शव जलाए जाते ताकि मोक्ष प्राप्ति हो सके लेकिन जब हम मंदिर से बाहर निकलेंगे तभी तक हमें उन लाशों के जलने की गंध महसूस होगी। द्वार में प्रवेश करते ही गंध गायब हो जाती है।
शिखर पर लगा चक्र
मुख्य मंदिर के शीर्ष पर एक चक्र लगा है जिसको किसी भी दिशा से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो उसका मुख हमारी तरफ ही हो।
मंदिर के गुम्बद की छाया
श्री जगन्नाथ स्वामी के मुख्य मंदिर के गुम्बद की परछाई नही बनती है चाहे दिन का कोई भी समय क्यों ना हो और सूर्य किसी भी दिशा में क्यों ना हो।
मंदिर के ऊपर पक्षियों की अनुपस्थिति
आपने देखा होगा कि ज्यादातर मंदिरों के ऊपर बहुत से पक्षी बैठे रहते हैं लेकिन इसके विपरीत जगन्नाथ स्वामी के मंदिर पर कोई भी पक्षी नही बैठता और ना ही उसके ऊपर से उठता है। इसी वजह से मंदिर के ऊपर से हवाई जहाज निकालने की भी मनाही है।
श्री जगन्नाथ जी की रसोई
जहां और मंदिरों में मिलने वाला प्रसाद केवल प्रसाद ही कहलाता है, जगन्नाथ स्वामी के मंदिर के प्रसाद को महाप्रसाद का दर्जा दिया गया है। यह प्रसाद जिस रसोई में तैयार किया जाता है वह विश्व की सबसे बड़ी रसोई है जहां पर 500 रसोइये अपने 300 सहयोगियों के साथ खाना तैयार करते हैं। खाना तैयार करने के लिए मिट्टी के 7 बर्तनों को एक के ऊपर एक कर के लकड़ी की आग पर रखा जाता है। खास बात यह है कि जो बर्तन सबसे ऊपर होता है उसमें भोजन सबसे पहले पकता है और इसी क्रम में सबसे नीचे वाले में सबसे बाद में। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भोजन कितना भी कम बना हो और कितने भी ज्यादा लोग भोजन करने आ जाये ये कभी कम नहीं पड़ता लेकिन मंदिर के द्वार बंद होते ही भोजन समाप्त हो जाता है और बिलकुल भी व्यर्थ नही होता।
श्री जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियाँ
श्री जगन्नाथ स्वामी ही है जिनकी मूर्तियाँ पत्थर या धातु की नही बल्कि लकड़ी की बनी हुई हैं। श्री जगन्नाथ मंदिर में बाई तरफ बलभद्र (बलराम), दाई तरफ जगन्नाथ स्वामी के रूप में श्री कृष्ण और बीच में उनकी प्यारी बहिन सुभद्रा की मूर्ति है। यह भाई बहिन के प्यार का अनूठा प्रतीक है।
श्री जगन्नाथ धाम की ये मूर्तियाँ अधूरी हैं जिससे जुड़ी कहानी हम नीचे पढ़ने वाले हैं। माना जाता है कि जगन्नाथ भगवान की मूर्ति से दिल के धड़कने की आवाज़ आती है। मंदिर में यह मूर्तियाँ हर 12 वर्ष के बाद रहस्यमय तरीके से बदली जाती हैं। मूर्तियों को रात में बदला जाता है और उस समय सारे शहर की बिजली काट दी जाती है। मंदिर के रास्ते पर पुलिस और सीआरपीएफ तैनात कर दी जाती हैं। मूर्तियाँ बदलने वाले मुख्य पुजारी को मूर्तियाँ बदलने से पहले आंखों में पट्टी बांध दी जाती है और हांथों में दस्ताने पहनाये जाते हैं। मूर्तियाँ बदलने के बाद पुरानी मूर्ति से ब्रह्मतत्व निकालकर नई मूर्ति में डाला जाता है। वो ब्रह्मतत्व क्या है किसी को भी नहीं पता। मूर्ति बदलने वाले पुजारी भी बताते है कि हाथ में दस्ताने होने की वजह से जाता कुछ पता नहीं चल पाता लेकिन वाे कोई जिंदा चीज है क्योंकि उसमें वैसी ही हलचल होती है जैसे किसी का जिंदा दिल हाथ में पकड़ लिया हो। माना जाता है कि इस ब्रह्मतत्व को अगर किसी ने देख लिया तो वह तुरंत ही मर जायेगा।
मंदिर का ध्वज
जगन्नाथ धाम के शीर्ष मंदिर के शिखर पर प्रतिदिन ध्वज फहराया जाता है और प्रतिदिन उतारा जाता है। यह कहा जाता है कि अगर किसी भी कारण घ्वज को नहीं उतारा हया तो मंदिर पूरे 18 वर्ष के लिए बंद हो जाएगा और उसे कोई नहीं खोल पायेगा।
श्री जगन्नाथ जी के रूप में क्यो होती है पूजा?
जगन्नाथ दो शब्दों जगत + नाथ से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है सारे जगत या विश्व के स्वामी। श्री जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ स्वामी को परब्रह्म परमेश्वर के रूप में पूजा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा जी या रुक्मिणी जी नहीं हैं बल्कि भाई बलराम और बहिन सुभद्रा जी हैं। भगवान श्री कृष्ण का श्री जगन्नाथ के स्वरूप में अवतरण की प्रचलित कथा कुछ इस प्रकार है-
द्वारिका में अपने महल में शयन करते हुए श्री कृष्ण के मुख से निद्रा में अचानक राधे-राधे निकल गया। रुक्मिणी आदि महारानियों ने यह सुन लिया लेकिन जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया। रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि हमें पता लगाना चाहिए कि वह कौन है जिसका नाम प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। साथ ही साथ महारानियों के मन में श्रीकृष्ण के बाल्यावस्था से जुड़ी बातों को भी जानने की इच्छा हुई। श्रीकृष्ण जी की रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय करके उन्हें मना लिया। पहले तो माता रोहिणी ने श्री कृष्ण की बाल लीलाओ के बारे में बताने से पहले सुभद्रा जी को द्वार पर पहरा देने के लिए बिठा दिया ताकि अगर श्री कृष्ण, बलदाऊ या कोई और उस तरफ आए तो वो सबको बता कर आगाह कर दें।
माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण भाई बलराम जी के साथ अचानक अन्त:पुर की ओर आ गए। सुभद्रा जी ने उन्हें उचित बहाना बना कर द्वार पर अपने साथ ही बिठा लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण की बाल लीलाओ और राधा जी के साथ रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। तीनों की भाव विह्वल होने के साथ ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि को स्पष्ट देख पाना मुश्किल था। सुदर्शन चक्र ने भी विगलित हो कर लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। उन्होने जो सुना, उस से उन्हे इतना आनन्द मिला की उनके बाल खडे हो गये, उनकी आँखें भी बड़ी हो गयी और उनके शरीर भक्ति के प्रेमभाव वाले वातावरण में पिघलने लगे। सुभद्रा जी बहुत ज्यादा भाव विभोर हो गयी थी इस लिये उनका शरीर सबसे ज्यादा पिघल गया। (शायद इसी लिये उनका कद जगन्नाथ के मन्दिर में सबसे छोटा होता है। )
अचानक से तभी वहाँ नारद मुनि का आगमन हुआ और उनके आने से तीनों लोग वापस से अपनी यथा स्थिति में आ गए। श्री कृष्ण, बलदाऊ भैया और सुभद्रा जी का ये रूप देख कर नारदजी ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्ति रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। भगवान श्री कृष्ण ने नारद जी की बात मान ली और उन्होंने कलियुग में राजा इन्द्रद्युम्न को निमित बनाकर जगन्नाथ अवतार लिया।
पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरण
पुराणों में वर्णित एक और मान्यता यह है कि इस भूमि पर लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। पुराणों में इसे धरती के वैकुंठ के रूप में भी वर्णित किया गया है। यह श्री विष्णु भगवान के चार धामों में से एक है। इसे भूमि क्षेत्र को श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी के नाम से जाना जाता है।
ब्रह्म और स्कंद पुराण में कहा गया है कि यहां भगवान श्री विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और वो सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में देखने को मिलता है जिसमें कहा गया है कि सबसे पहले सबर जनजाति के आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में श्री जगन्नाथ भगवान की पूजा की थी। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ की मूर्तियाँ काष्ठ रूप में हैं क्योंकि जनजाति के लोग कबीले में रहते थे और अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। इसलिए जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारी भी ब्राह्मण पुजारियों के साथ जगन्नाथ जी की सेवा करते हैं और इन्हें दैतापति कहा जाता है। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति विशेष रूप से श्री जगन्नाथजी की सेवा और पूजा में रहते हैं।
भगवान जगन्नाथ की मूर्तियाँ अधूरी क्यों हैं?
श्रीकृष्ण अपने परम भक्त राजा इन्द्रद्युम्न मालवा के शासक थे। उन्होंने श्रीक्षेत्र में कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया था। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके द्वारा किए गए यज्ञानुष्ठानों के बारे में विस्तार से लिखा है। राजा इन्द्रद्युम्न के मन में श्रीहरि का मंदिर बनवाने की तीव्र इच्छा थी। एक रात भगवान श्रीकृष्ण ने उनको सपने में दर्शन दिए और बताया कि द्वारिका से समुद्र में बहकर आया एक पेड़ का तना किनारे पर पड़ा है उससे वो श्री कृष्ण का विग्रह बनाकर मंदिर में स्थापित करें।
राजा ने इस कार्य के लिये कई बढ़ई लगा दिए लेकिन उनमे से कोई भी उस तने को जरा-सा भी नहीं काट सका। कुछ दिनो बाद एक रहस्यमय बूढा ब्राह्मण आया और उसने कहा कि श्री हरि की मूर्ति बनाने की जिम्मेदारी वो लेगा लेकिन उसकी एक शर्त है कि वो मूर्ति बन्द कमरे में बनायेगा, उसका काम खत्म होने तक कोई भी उस कमरे का द्वार नहीं खोलेगा और यदि किसी ने द्वार खोल दिया तो वो काम अधूरा छोड़ कर चला जायेगा। राजा उसकी शर्त मान गए और उसने मूर्तियाँ बनाने का कार्य आरम्भ कर दिया। राजा प्रतिदिन उस कमरे के पास आते थे तो उन्हें अंदर से काम करने की आवाज़ सुनाई देती थी। ६-७ दिन बाद काम करने की आवाज़ आनी बिलकुल बन्द हो गयी तो राजा से रहा नहीं गया और ये सोचते हुए कि ब्राह्मण को कुछ हो ना गया हो, उन्होने द्वार खुलवा दिया। अन्दर जाने पर उन्हें सिर्फ़ अधूरी बनी हुई तीन मूर्तियाँ ही मिली और बूढा ब्राह्मण लुप्त हो चुका था। तब राजा को आभास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि स्वयं विश्वकर्मा जी थे। राजा को इस बात से गहरा आघात हुआ कि मूर्तियाँ अधूरी थी और उनके हाथ और पैर नहीं थे। वह इस बात को लेकर बहुत पछतावा करने लगे तभी वहाँ पर ब्राह्मण के रूप में नारद मुनि आए और उन्होंने राजा से कहा कि भगवान इसी स्वरूप में अवतरित होना चाहते थे इसीलिए दरवाजा खोलने का विचार राजा के दिमाग में डाला था। फिर उन्होंने उसी रूप में श्री कृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्तियाँ मंदिर में स्थापित करवा दी।
श्री जगन्नाथ रथ यात्रा
जब भगवान श्री कृष्ण जी की बहिन सुभद्रा जी को द्वारिका पुरी घूमने की इच्छा हुई तो माता सुभद्रा की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर उन्हें नगर भ्रमण करवाया था। भगवान द्वारा किए गए इसी नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा जगन्नाथ पुरी में हर वर्ष होती है।
रथयात्रा में श्री बलराम ,श्री कृष्ण और सुभद्रा जी तीनों अलग अलग रथ पर निकलते हैं।सबसे आगे ताल ध्वज नामक रथ पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज नाम के रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ स्वामी जी सबसे पीछे चलते हैं।
सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ गुंडीचा मन्दिर में पहुँच जाते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करने के बाद सात दिन वहीं पर रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में श्री जगन्नाथ जी के 'आड़प-दर्शन' कहालाते हैं।